देवी अष्टभुजा

देवी अष्टभुजा स्तोत्र
नमो अष्टभुजे देवि पार्वति शारदे।
बुद्धि वैभव दो मातर् हमें दो शक्ति सर्वदे।।१।।
शील रूपवती नारी तेरी ही प्रतिमा बने।
धर्म संस्कृति रक्षा से धन्य भारत को करें।।२।।
सुगंधित सुवर्णाभ सुकोमल सरोज जो।
हस्त में धृत देता है पाठ निर्लेप तुम बनो।।३।।
गीता प्रदीप जो देता विश्व को ज्ञानचेतना।
कर में स्थित है तेरे स्नेहले अम्ब मंगले।।४।।
शील चारित्र्य की होवे आभा प्रसृत पावनी।
अग्निकुण्ड इसीसे है प्रदीप्त धृत हाथ में।।५।।
त्रिशूल है लिया मातर् दुष्ट संहार हेतु से।
खड्ग देवि लिया है जो सज्जनत्राण बुद्धि से।।६।।
विरागविक्रमों की जो फहराये नभ में प्रभा।
भगवा ध्वज है तूने हाथ में पकडा महा।।७।।
ध्येय का ध्यान ना भूले कार्य में रत हो सदा।
स्मरणी हाथ की देती हमें सन्देश सर्वदा।।८।।
घण्टानाद हमें देता नित्य जागृति वत्सले।
निद्रा आलस्य में खोवे अमोल क्षण ना कदा।।९।।
सिंहवाहिनी अम्बे तू जगाती जनसिंह को।
सटाओं से उठे सेना शक्तिसामथ्र्यदायिके।।१०।।
सती तू पद्मजा तू है तू है देवी सरस्वती।
परित्राणाय साधूनां काली माँ तू यशोमती ।।११।।
विनम्र भाव से देवि प्रणिपात सहस्रदा।
सेविकाएँ करें आशीष देहि देवि सुमंगले।।१२।।
सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते।।१३।।
।।देवि अष्टभुजा की जय।।

सर्वसामान्य व्यक्ति अमूर्त कल्पना समझने में सक्षम नहीं होते है। अतः ऐसा अमूर्त भाव मूर्त स्वरूप में साकार कर, सबकी विचारशक्ति की पहूच में लाकर सबके सामने प्रतिक स्वरूप में रखना यह भारतीय संस्कृति की एक विशेषता है। राष्ट्र सेविका समिति ने स्त्री के आवश्यक गुण, उसकी क्षमता, उसकी सुप्त शक्ति, कायान्वित हो इस दृष्टि से १९५० में अष्टभुजा देवी का प्रतिक सेविकाओं के सामने रखा। स्त्री में त्रिवि शक्तियाँ होती है - प्रेरक, तारक, मारक। कन्या, बहन, पत्नी, माता ऐसी जीवन की इन चार अवस्थाओं में समाज को प्रेरणा देनेवालें कई स्त्री चरित्र हमारे इतिहास के पन्नों पर अंकित है। जैसे की राणा प्रताप की कन्या चंपा, खंडो बल्लाळ की बहन संतुमाई हाडा रानी, जिजामाता उसकी प्रेरक शक्ति को दर्शाते है। अपने पुत्र को बनबीर के खडग को बलिं देकर राजवंश को सुरक्षित रखनेवाली पन्नाधाय, राजादाहर की - मृत्यू बाद शत्रु को परास्त करने का प्रयास करनेवाली दाहरपत्नी जैसी कहानियाँ उसकी तारक शक्ति की परिचायक है तो महिषासुरमर्दिनी देवी, राणी लक्ष्मी, सत्यभामा जैसे चरित्र उसकी मारक शक्ति का दर्शन कराते है। देवी के हाथ के कमल, गीता स्मरणी से प्रेरणा शक्ति, वरदहस्त से तारक शक्ति तथा त्रिशूल खङ्ग धारण कर मारक शक्ति का समुच्चय हम देवी अष्टभुजा में देखते है।

श्री बंकिमचंद्र ने भारत माँ को, ज्ञानदायिनी सरस्वती, वैभवदायिनी लक्ष्मी और दुष्टविनाशिनी दुर्गा तीनोंके समन्वित रूप में देखा। देवी अष्टभुजा की आराधना भी उसी दृष्टी से ही करते है। देवी महात्म्य में देवी की उत्पत्ति का कारण और कथा बतायी है। आसुरी वृत्ति का प्रतिरोध करने देवगण असमर्थ सिद्ध हुए। तब उन्होंने आदिशक्ति - मातृशक्ति का आवाहन किया। उसको अपने अच्छे शस्त्र अस्त्र प्रदान किये और इस संगठित सामथ्र्य से युक्त हो कर यह महाशक्ति दुष्टता के विनाश का संकल्प लेकर सिद्ध हुई और देवों को भी असंभवसा लगनेवाला कार्य उसने कर दिखाया। आज भी जीवनमूल्यों को नैतिकता के पैरोंतले कुचलने वाली अहंमन्य दानवी शक्ति को, जीवन के श्रेष्ठ अक्षय तत्त्वज्ञान को दुर्लक्षित कर क्षणिक भौतिक सुख को शिराधार्य माननेवाली मानसिकता को तथा श्रद्धा को उखाडनेवाली बुद्धि को हमें हटाना है, तो फिर मातृशक्ति को ललकारना होगा, उसे संगठित करना होगा। अतः ऐसी अष्टभुजा का प्रतीक हमेशा हमारे सामने रहे जो हमें अपने कर्तव्य शक्ति का, संगठन का बोध कराते रहेगा। विशाल वटवृक्ष, पावन मंदिर और अक्षुण्ण बहनेवाला जलस्रोत इस पृष्ठभूमिपर सिंहारूढ, विविध आयुधों से युक्त, आत्मविश्वासपरिपूर्ण यह देवी हमें प्रसन्नता के साथ हमारे कुछ गुणों का, भावों का, शक्तियों का उन्नयन करने का संदेश प्रदान करती है।

एक सूक्ष्म से बीज से उत्पन्न होकर भी विशालता प्राप्त करनेवाला वटवृक्ष, अपनी टहनियों से नया वृक्ष निर्माण करने की क्षमता रखता है। सहस्त्रों पक्षियों का निवासस्थान और प्रवासियों का विश्रामस्थान बनता है। अन्यान्य पंथों को जन्म देनेवाले, अन्याय पंथों का अपन में समा लेनेवाले अतिप्राचीन हिन्दू धर्म का प्रतीक है। भारतीयों का अध्यात्मिक भाव और ज्ञान वटवृक्ष तथा मानवी शक्ति से श्रेष्ठ, सामथ्र्यवान जो अगम्य अचिन्त्य विराट शक्ति है उसका परिचायक पावन मंदिर, हमारी नम्रता, श्रद्धा तथा असीम निष्ठा वृद्धिगत करता है। बिना भेदभाव के सभी को समान लाभ देनेवाली, अपने दोनों तट सुजलां-सुफलां बनानेवाली नदी, उसको आकर मिलनेवाले विभिन्न जलप्रवाहों को आत्मसात कर अखंड सातत्य से बहती है और अंत में सागर में, अपना सारा जलसंचय, सारावैभव मानों ‘स्वङ्क का भाव ही, समर्पित कर देती है।

सदियों से लगातार चलती आयी और वधिष्णु होनेवाली विशाल तथा उदार, अनेकानेक शरणार्थियों को आश्रय देनेवाली, अनेकानेक विचारधाराओं को जन्म देनेवाली तथा अन्य योग्य विचारों को संमिलित कर लेनेवाली ज्ञान, विज्ञान, अध्यात्म, नीति, विविध शास्त्र, सभीमें अत्युच्च कुशलता पाकर वह विश्वकल्याण हेतु समूचे विश्व में उदारता से उंडेल देनेवाली भारतीय संस्कृति के निदर्शक इस पृष्ठभूमीपर अष्टभुजा सिंहपर विराजमान है। बलवान, स्वाभिमानी, स्वातंत्र्यप्रिय, वनराज सिंह को अपने अधीन रखने की क्षमता उसमें है। उसकी सिंहपर बैठक इतनी दृढ है कि वह जरा भी विचलित या डाँवाडोल नही होती है। स्वसामथ्र्य पर कितना अटूट विश्वास है! ऐसी अपराजिता शक्ति हमारा आदर्श है। हम भी ऐसी शारीरिक मानसिक शक्ति प्राप्त करेगी। सिंह की सावधानता चापल्य, स्वाभिमान, नेतृत्वक्षमता भी हमें मार्गदर्शक है।

अष्टभुजा याने आठ हाथोंवाली। फिर भी उसका मस्तक एक है। चिन्तन एक, कृति में लाने आठ हाथ। एक चिंतन, कार्यकर्ता अनेक। एक मेंदू, मस्तिष्क अंग अनेक और सभी में अंगांगी भाव। स्वतंत्र अस्र्तित्व, स्वतंत्र कार्य किन्तु एक उपांग बन कर। एक का कार्य दूसरे को पूरक। हम सब एक है यह एकात्म अनुभूति। हरेक का एक उद्देश से किया जानेवाला सामूहिक काम।

स्थान और कार्य महत्त्वपूर्ण किन्तु तब तक ही जबतक वह सबसे जुडा रहता है। किसीका भी फूटकर अलग होने का भाव उसको स्वयं को तथा समूह को भी हानि पंहुचाता है। अपनी कार्यशक्ति माँ के चरणों में समर्पित होनी चाहिये। सामूहिक कार्यसंकल्प हितकारक सिद्ध होता है। एकात्मभाव से स्पर्धा, मत्सर, अहंकार तथा विनाशकता नष्ट होते हैं और दिव्य शक्ति का निर्माण होता है।

स्त्री का अष्टावधांनी होना भी इस आठ हाथों से सूचित होता है। एक ही समय अनेक कामों में वह ध्यान रखती है - सजग रहती है। परिवार के सभी जनों काध्यान रखती है। ईर्दगीर्द घटनेवाली घटनाओं का कार्यकारण भाव समझ सकती है। मानों एक सजग प्रहरी है। हरेक हाथ में विभिन्न आयुध धारण करनेवाली।

बायें हाथमें त्रिशूल पर लहरता हुआ ध्वज और दाहिने हाथ में मानों वार करने सिद्ध खङ्ग हमारा ध्यान आकर्षित करता है। शस्त्रधारी देवी। ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्ङ्क हेतु से दक्ष है। भारतवर्ष में अनेक राजनैतिक प्रयोग हुए। बिना शासक शासन का भी प्रयोग हुआ। बिना शस्त्र समाज का भी हुआ। परमोच्च अहिंसा का भी हुआ। किन्तु वे असफल रहें। समाज में शतप्रतिशत लोग सत्कर्मप्रेरक, सच्चरित्र, सद्हेतुधारी होना असंभव सा है। दुष्प्रवृत्ति हमेशा आक्रमक होती है। उससे बच पाने के लिये स्वसंरक्षणक्षम बनना अनिवार्य होता है। इस आक्रमकता की पहली शिकार होती है दुर्बलता। शस्त्रधारण उस दुष्ट प्रवृत्ति को रोकता है। उसके मन में चिंता और भय निर्माण करता है। उसी समय शस्त्रधारक निर्भय और आत्मविश्वासपूर्ण बनता है। सभी का कल्याण हो, उनको सुखशांति प्राप्त हो इसके लिये शस्त्रसज्जता अत्यावश्यक है।

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