त्रिशूल

दूरसे ही द्रुतगति से शत्रु को चीरने वाला। तीन शिर होने के कारण अधिक पीडादायक। त्रिगुणात्मक प्रवृत्तियाँ, त्रिताप, तीन गुण, सब मानवकल्याण वृत्ति के डंडे को जुडे हुएं। यही कारण है कि वह ध्वजदंड बन गया है। उसपर फहरनेवाला ध्वज है भगवा-त्यागाधारित तेजस्वी संस्कृति का निदर्शक। विक्रम और वैराग्य, वैभव और त्याग जैसे दो छोर है इसके। उदयमान सूर्य, प्रज्वलित अग्नि की ज्वालाओं के समान रंग है। हिन्दु मानस में इसके प्रति प्रगाढ श्रद्धा है, अतीव आदर है, अगाध निष्ठा है। भारत के विजयी इतिहास का, श्रेष्ठ वैभव का, विश्वकल्याण हेतु विश्वसंचार का, कृण्वन्तोविश्वमार्यम् भाव का, मानवधर्म के आचरण का यह साक्षी है। वह हमारा श्रद्धास्थान है, प्रेरणाकेंद्र है, मानबिन्दु है। हमने उसको गुरु माना है। उसकी रक्षा हमारा आद्य कर्तव्य है।

खङ्ग

शस्त्रधारी हाथ की निपुणता के साथ-साथ दृढ मन जुडा हो तो विजय निश्चित होती है। हमारी माँ के हाथ के खङ्ग के पीछे दुष्टदमनार्थ संकल्पित उसका मन है अतः यशप्राप्ति निश्चित है। दृढ संकल्पिता, निश्चयात्मक बुद्धि, समर्थ वाणी और निष्काम कर्तव्यभाव खङ्ग को तेज बनाते है। यह तीक्ष्ण खङ्ग हमेशा कोश में बंद रहता है। किन्तु आवश्यकता के समय उसे झट से खींच वार करने के लिये अभ्यास आवश्यक है।

वरदहस्त

शस्त्रधारी हाथों के साथ ही हमारे ध्यान में आता है वरदहस्त। कहा जाता है कि सिंहनी के तीक्ष्ण नाखून उसके बच्चों को कभी घायल नहीं करते हैं। उन तीक्ष्ण नाखून के भरोसे ही बच्चे आश्वस्तता और सुरक्षितता का अनुभव करते है। हमारी माँ के वरदहस्त से हमें प्रतीत होती है उसकी क्षमाशीलता, उसकी ममता। हमसे कुछ गलती हुई तो भी माँ क्षमा करेगी यह आश्वासक भाव मन में निर्माण होता है। उसका वरदहस्त भूले भटकों को क्षमा कर शक्ति प्रदान करता है। समाजकार्य में व्यस्त लोगों को संगठकों को यह भाव अपनाना ही चाहिये। शस्त्रधारण के साथ विवेकी क्षमाभाव। यह अभयहस्त हमें आत्मविश्वास से परिपूर्ण हो आगे बढने की प्रेरणा देता है।

अग्निकुंड

धधकती हुई ज्वालाओं की संहारक शक्ति नियंत्रित करनेवाला अग्निकुंड। विनाशक, शक्तिको, उपयोगिता में, विधायकता में बदलनेवाला। यही है मानवी बुद्धि की कुशलता। नियंत्रित स्वतंत्रता। संहारक शक्ति का तारक शक्ति में परिवर्तन। दोषों को मिटाकर गुणों का उपयोग।

अग्नि तेजस्वी है, स्वयं पवित्र है ही दूसरों की भी अशुद्धि नष्ट कर उन्हेंभी शुद्ध पवित्र बनाता है। ‘समुन्नामितं येन राष्ट्र न एतद् पुरो यस्य नम्रं समग्रं जगत्ङ्क भारतीय स्त्री के ऐसे सच्चरित्र का, शुद्धशील का, पवित्रता, पातिव्रत्य का, सतीत्व का ही मानों प्रतिक है। अग्नि की उध्र्वगामिता ‘नाधः शिखा यान्ति कदाचिदेवङ्क सदैव विकास, उन्नति, उत्कर्ष की ओर ध्यान। यह गुण उपजाया है भारतीय संस्कृति ने। ऐसी प्रगतिशील संस्कृति का रक्षण भारतीय स्त्री ने ही किया है - कर रही है और करती रहेगी। किन्तु इस अग्नि को जलाना पडता है - घर्षण से हो, दियासलाई से, लायटर से या बटन दबाकर। जलाने के बाद यह तुरंत जलता है किन्तु उसका प्रज्वलन प्रयत्नसाध्य ही है। हमें यह ध्यान में रखना है। अग्नि को सातत्य से प्रज्वलित रखने उसमें आहुतिया भी देना है। और वह भी ‘इदं न मम’ भाव से। समर्पण एक बार नहीं बार बार। शक्ति, बुद्धि, धन, मन सब कुछ समर्पित हो। इस समर्पण से ही भारत का इतिहास तेजस्वी बना है और भविष्य में भी इसी के आधार पर भारत तेजस्वी बना है और भविष्य में भी इसी के आधार पर भारत तेजस्वी राष्ट्र बनेगा। अग्नि की और एक विशेषता है - गतिशीलता। बीच में जो जो कुछ आता है उसे आत्मसात करते हुए वह चारों तरफ फैलता जाता है।

अग्नि के विविध गुण, उसकी विनाशकता शक्ति पर नियंत्रणक्षमता, अग्नि की उष्णता से तप्त अग्निकुंड हाथ में धारण करने की क्षमता हमे अपनानी है। उसको कृति में परिवर्तित करना है निरहंकार वृत्ति से। यह संदेश है गीता का।

श्रीमद्भगवद्गीता

ज्ञान, कर्म, भक्ति का मधुर संगम। कर्म ज्ञानाधिष्ठित हो और भक्तिपूर्ण भी। साथ-साथ निष्काम भी। निराशा सें पलायवान नहीं, यश के अहंकार से भी ऊपर ऊठकर। गीता हमें यह कर्मयोग सिखाती है। स्वामी विवेकानंदजी ने अपने गुरु को तरह तरह से परखा। एक बार कसौटी पर उतरने बाद उनपर अविचल श्रद्धा, निष्ठा से उनके अनुगामी बने। अपना ध्येय प्राप्त करने हमने दिव्य मार्ग का स्वीकार किया है। अविचल निष्ठा से, बाधाओं पर विजय पाते हुए हम आगे बढेंगे। परन्तु उसके लिये हमें अपने ध्येय का सदैव स्मरण रहें अतः है।

स्मरणी

जापमाला। प्रतिपल स्मरण। इसके लिये साधन है १०८ मणियों को एकत्रित गूंथकर बनायी हुई माला। १०८ बार जप किन्तु गिनती है १००। मोह के क्षण कर्तव्य ध्यान भुला सकते है। कहा जाता है खरगोश की शिकार करनी हो तो भी तैयारी करनी है सिंह के शिकार की। कार्यकर्ता ने यह हमेशा ध्यान में रखना है। कभी-कभी माला फेरना यह एक शरीर की प्रतिक्षिप्त क्रिया बन जाती है फिर भी माला का शीर्ष मणी आते तक वह नीचे नही रखी जाती। हाथ से कृति होती है, मन चिन्तन करता है।

माला का हरेक मणि महत्त्वपूर्ण है फिर भी माला का एक अंश है। व्यक्ति कितनी भी श्रेष्ठ, विद्वान, कुशल हो उसने ‘मै अपने इस समाज का राष्ट्र का एक छोटा घटक हूं’ यह भूलना नहीं चाहिये। एकेक मणि अलग होता जायेगा तो माला रहेगी ही नही और मणि भी कटी पतंग के समान झोके खाता रहेगा और गिर जायेगा।

ध्येय का स्मरण और पुनः पुनः प्रयत्न से ही हम ध्येय प्राप्त कर सकेंगे।

मणि अनेक किन्तु धागा एक - संगठित रखने की क्षमता - भावी तेजस्वी राष्ट्र निर्माण का हेतु यह धागा है जो हमें कर्तव्य से बद्धरखता है।

क्षण-क्षण से ही हमारा जीवन बनता है। जो क्षण जाता है वह फिरसे वापस नही आता। अतः हमे हरेक च्ण अपने जीवितकार्य में, राष्ट्रसेवा में व्यतीत करना है। माँ के हाथों की स्मरणी हमें इसलिये प्रेरित करती है। यह सब होगा हम सजग रहेंगे तो। घंटानाद हमें जगाता रहे।

घंटा

घंटा मंदिर की हो, पाठशाला की हो, दरवाजे पर लगायी हुई हो या घडी की हो - वह अपने नाद से हमें जगाती है। जागृतावस्था अर्थात् क्रियाशीलता। घंटा का मधुर नाद हमें प्रसन्न करता है। ‘आगमार्थं तु देवानां’ यह उपयुक्त है। किन्तु जब हम उसका फल ‘निर्गमनार्थं तु रक्षसाम्’ चाहते है, शत्रुहृदय को भयकंपित करना चाहते है तब उसका उपयोग शस्त्रसमान कठोरता से और तेजी से ही करना पडेगा। देवी महात्म्य में देवी के हाथ के घंटानाद से दैत्यों का हृदय कंपित हुआ ऐसा वर्णन है। गीता में भी वर्णित है ‘शंखं दध्मौ पृथक् पृथक्|’ शांतता के समय मंगलप्रद तो युद्ध के समय भयप्रद घंटारव।

कमल

देवी को नमन करते हुएं हम बोलते है ‘सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यंबके गौरी। नारायणी नमोस्तुते|’ यह मंगल और शिव भाव व्यक्त होता है कमल से। अपनी सुंदरता से सभी को आकर्षित करता, लुभांता है। खास कर कवियों को बहुत प्यारा लगता है। मुखकमल, नयन कमल, चरणकमल, हस्तकमल, जैसे कई शब्दों का उपयोग उन्होंने किया है। केवल सुंदरता नही साथ में सुगंध भी है। अतः ईश्वरचरणों पर चढाने योग्य है। जितना सुंदर, सुगंधित उतना कोमल भी है। उसकी पंखुडियों की कोमलता हमारे मन को कोमल बनाती है और उनको हम अतीव कोमलता से स्पर्श करते है। यही कारण है कि उसमें रात्रि के समय बंदिस्त हुआ भ्रमर, बडे-बडे लकडीयों को खोखला बनाने की क्षमता होते हुए भी, पंखुडियों को जरा भी हानि नहीं पहुंचाता है। हम जानते है कि राक्षसियों के बीच रहते हुए भी सीता सुरक्षित रही। वास्तव में कमल का जन्म कीचड में होता है फिर भी उसकी डंठल कीचड से तथा पानी से भी ऊपर ऊठती है और अपने माथे पर कमल को धारण करती है। महारथी कर्ण के वचन ध्यान में आते है, ‘मदायत्तं तु पौरुषम्|’ जन्म के अनुसार नहीं कर्म के अनुसार चातुर्वण्र्य। प्रतिकूल परिस्थितिओं पर निश्चय से विजय पाना।

प्राचीन काल में कमल पत्रों का उपयोग पत्र लिखने हेतु किया जाता था। इतने बडे-बडे पत्ते पानी के ऊपर तैरते रहते है। गोल आकार और सुंदर हरा रंग। दिनरात पानी में रहते हुए भी गीले नही होते है। यह निर्लेपता हमे भारतीय ऋषिमुनि, संतों की याद दिलाती है। हम जब किसी तालाब में कमल देखते है तग मुंहसे ‘वाह’ निकल जाती है किन्तु कमलफूल और कमलपत्र ही दिखाई देते है। डंठल का कही दर्शन भी नही हो पाता। जीवनरस देनेवाला तो वही है। अदृश्य रहते हुए भी सबकुछ। ईश्वर को हम कहते है ‘करुनि अकर्ता, जग निर्मयता|’ संतानों के कार्यकर्तृत्व से माँ का बडप्पन ध्यान में आता है। एक कुशल माँ के समान ही यह डंठल पंखुडियाँ भारी संख्या में होते हुए भी उनको इधर-उधर भटकने नहीं देता है, तितरबितर नहीं होने देता है। मानो, वह संगठन का बोधक है। विविधता में एकता का दर्शन कराता है।

सुंदरता, सुगंधितता, कोमलता, निर्लेपता, विषम परिस्थिति से भी ऊपर उठने की क्षमता, संगठन कुशलता, इतने सारे गुणों से युक्त होते हुए भी उसकी चाह क्या है? श्रीहरी को अर्पण करने गजेंद्र ने जो कमल तोडा था वह अमर बन गया है जैसी ही अमरता उसे अपेक्षित है। एक कवि ने पुष्प की अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहा है, ‘चाह है देशभक्तों के पैरों तले कुचले जाने की|’

राष्ट्र सेविका समिति का केवल ऊपरी दृश्य रूप देखनेवाली महिलाओं के मन में प्रश्न उठता है ‘यह मूर्तिपूजा क्यों?’ यह मूर्तिपूजा है ही नही। हम तो पूजा के समान उसको गंध फूल अक्षत चढाते भी नही है। केवल पुष्पमाला और मनोभाव से किया हुआ प्रणाम। क्योंकि हम गुणपूजक है। सद्गुणों का, सत्कर्मका, तेज का सन्मान करनेवाले हम भारतीय है। भारत है। अष्टभुजा के गुण अपनाने का अधिकतम प्रयासकरनेवाली सेविकाओं का यह संगठन है।

जिन्होंने चिन्तनपूर्वक यह प्रतिक कुशल चित्रकार से बनवा कर हेतुतः सेविकाओं के सामने रखा उनको वं. मौसीजी के उस चिन्तन को, उस प्रतिभा को शत शत प्रणाम।